Friday, April 17, 2020

कितना गैर जरूरी था मैं


जी करता है मौन ही रह लूँ, किसी राह का पत्थर बनकर ।

टकराएगा जब कोई मुसाफिर, सह लूँ बस तब ठोकर बनकर ।



देख के पतझड़ के पत्तों को, घबराता है ये मन अंदर ।

हरे भरे रहने की ख्वाहिश, क्यूँ रखता हूँ अपने अंदर ।



जन्म हुआ था घोर रात्रि में, नाम दिया था दीपक सुन्दर ।

रौशनी को चला दिखाने, मैं लोगो को जो थी अंदर ।



शायद भूल गया मैं खुद को, वजूद था मेरा बस बंद कमरे में।

छोड़ गए सब भोर हुई जब, मैं खोया था एक सपने में ।



एहसास यहाँ तक नहीं रुका था, क्या है दीपक तले पता था ।

किंचित भी मुझे ज्ञान नहीं था, परन्तु वो अभिमान नहीं था ।



नभ प्रकाश को शोभित करते, जल अर्पण और सुन्दर फूल ।

जलना जीवन पर्यन्त कुटीर में, है तले अँधेरा अपने भूल ।



चला प्रकाश नभ तक पहुंचाने, पर था मैं धरती की धूल ।

कितना गैर जरूरी था मैं, अपनी मर्यादा को भूल ।।