इन्तजार
इश्क़ का खंजर कुछ यूं निकाला उसने,
कि हम क़त्ल भी हुए और एक आह भी न आयी |
चले थे हम साथ इस दरिया में उंगलियों में उंगलिया पिरोये,
होश आया तो खुद को पाया आँखें भिगोये |
वो थे अब ओझल, जिंदगी के नए सफर पे कुछ नए सपने संजोये,
लिख हाथ पे मेरे अलविदा और कर मुझे मुझसे जुदा |
उसकी मौजूदगी का अहसास, है आज भी मुझमे कहीं ,
ढूंढ़ती आँखे उन्हें और जैसे मानो कोई आहट आयी |
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